गीत (श्रम-जल)
गीत(श्रम-जल)
टपक-टपक कर श्रम-जल तन से,
निर्धन का चित्कार रहा।
यह लेकर आकार समझ लो,
रोटी का आधार रहा।।
श्रम की बूँदें अमृत होतीं,
माटी को सोना करतीं।
सोने जैसी फ़सल उगाकर,
श्रमिक-अन्न-भंडार भरतीं।
वर्षा-गर्मी,जाड़ा-पाला,
हर मौसम साकार रहा।।
रोटी का आधार रहा।।
श्रम का है संबंध श्रमिक से,
जैसे चोली-दामन का।
श्रम के बिना श्रमिक अधूरा,
जैसे वर्षा सावन का।
सदा पसीना ही तो उसके,
जीवन का उपहार रहा।।
रोटी का आधार रहा।।
श्रम-जल-बूँदें जग-हितकारी,
जग की भूख मिटातीं हैं।
माटी के सँग मिलकर बूँदें,
जीवन-पुष्प खिलातीं हैं।
जीवन सुखमय-मधुमय होए,
श्रम ही भागीदार रहा।।
रोटी का आधार रहा।।
श्रम-जल जिसका आराध्य रहा,
उसका जीवन सफल बना।
श्रम करने से जो कतराया,
वह तो जग में विफल बना।
पुरा काल से वर्तमान तक,
श्रम का ही उपकार रहा।।
रोटी का आधार रहा।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
Varsha_Upadhyay
11-Apr-2023 07:52 PM
शानदार
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Gunjan Kamal
09-Apr-2023 08:15 PM
बहुत खूब
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ऋषभ दिव्येन्द्र
09-Apr-2023 04:34 PM
लाजवाब रचना
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